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1984 सिख दंगे को 'मृत मुद्दा' बताने वाली कांग्रेस की सच्चाई 2002 की बीजेपी से कितनी अलग?- नज़रिया

दिल्ली की सड़कों पर लगातार तीन दिनों तक सिखों का संहार होता रहा. संसद ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुई सिखों की हत्याओं की निंदा करते हुए कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं किया.

जबकि नई सरकार के गठन के फौरन बाद जनवरी, 1985 में राजीव गांधी सरकार ने इंदिरा गांधी की हत्या और भोपाल गैस त्रासदी के मृतकों के प्रति दुख जताया.

फरवरी 1987 में एक और चूक हुई. 1984 दंगों पर एक रिपोर्ट संसद में पेश की गई.

सदन में भारी बहुमत का दुरुपयोग करते हुए राजीव गांधी सरकार ने न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पर सदन में चर्चा की इजाज़त नहीं दी.

संसद में हुई 21 साल बाद चर्चा
इस मुद्दे पर संसद का मुंह दबाना सरकार के अपने उस अड़ियल रवैये को ज़ाहिर करता है, जो उसने सुप्रीम कोर्ट के कार्यरत जज की जांच में मिली क्लीन चिट के बाद हासिल किया था.

मिश्र को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया, वो मानवाधिकार आयोग के पहले अध्यक्ष बने और फिर राज्यसभा में कांग्रेस के टिकट पर सांसद बने.

अगस्त 2005 में जब मनमोहन सिंह सरकार ने इसी विषय पर एक दूसरे जांच आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश की, तब जाकर 21 साल पुरानी घटना पर संसद में चर्चा हुई.

वो भी इसलिए कि केन्द्र सरकार को न्यायमूर्ति नानावती आयोग की जांच रिपोर्ट स्वीकार करने पर मजबूर किया गया. इस रिपोर्ट में एफ़आईआर दर्ज होने के बावजूद सज्जन कुमार को बाद में दोषी न ठहराने की बात का ज़िक्र था.

दिलचस्प है कि जिस न्यायाधीश ने 1984 के दंगों की दोबारा जांच की, उन्होंने ही 2002 के गुजरात दंगों की भी जांच की थी.

नानावती आयोग ने नवम्बर 2014 में गुजरात दंगों पर अपनी रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट के आने के बाद गुजरात की बीजेपी सरकार 1987 की कांग्रेस से भी दो कदम आगे रही.

बीजेपी से कितनी अलग है कांग्रेस
गोधरा कांड के बाद हुई हिंसा पर नानावती रिपोर्ट छह महीने की संवैधानिक समय सीमा के उल्लंघन के बाद भी विधानसभा के पटल पर नहीं रखी गई.

शायद बीजेपी से ऐसी ही उम्मीद थी, जिसे वैचारिक रूप से साम्प्रदायिक माना जाता है.

लेकिन गांधी और नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाली कांग्रेस उससे कितनी अलग थी?

सज्जन कुमार को दोषी ठहराने के बाद इस अवधारणा को बल मिलता है कि समय पड़ने पर साम्प्रदायिक अवसरवादिता कांग्रेस का पुराना इतिहास रहा है.

अगर दिल्ली में 1984 दंगों के लिए एक राजनीतिज्ञ को दोषी ठहराने में 34 साल लगते हैं, तो निश्चित रूप से इसे कांग्रेस के शुरुआती शासनकाल में अपराधियों को बचाने के लिए संस्थानों के क्रियाकलाप में दखल से जोड़कर देखना चाहिए.

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