पूर्वोत्तर राज्य असम के पकवानों का ज़ायक़ा दिल लुभाता रहा है, राज्य की पारंपरिक थाली में व्यंजनों की विविधता है और यही इस इलाक़े की पहचान भी है.
कई ऐसे व्यंजन हैं जो अहोम राजाओं के दौर से प्रचलित हैं. राज्य के कुछ-कुछ इलाक़ों में बनने वाले व्यंजन वैसे ही हैं जैसे बर्मा और थाईलैंड में पकाये जाते हैं. वैसे तो चावल ही यहाँ का मुख्य आहार है. मगर अब दालें और सब्ज़ियां भी उगाई जा रही हैं.
ऊपरी असम से लेकर निचले असम तक पारंपरिक खाने की थाली में परोसे गए व्यंजन अलग-अलग होते हैं और उनका स्वाद भी. अहोम लोगों के पकवान या फिर बोडो और अन्य जनजातियों के व्यंजन एक दूसरे से काफ़ी अलग हैं और उनका स्वाद भी क्षेत्र के हिसाब से बदलता रहता है.
कश्मीर से लेकर पूर्वी और मध्य भारत के अलावा दक्षिण भारत में भी खाना पकाने के तरीक़े अलग रहे हैं.
ये लोगों के स्वाद पर ही निर्भर है जहाँ मध्य और दक्षिण भारत में तेज़ मसालों का इस्तेमाल होता है, वहीं असम में भी पकवान मसालेदार होते हैं. लेकिन पड़ोसी राज्य अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और नागालैंड में मसालों का कम इस्तेमाल किया जाता है.
दूसरे प्रदेशों की तरह ही असम के किसान भी अपने व्यंजनों का उत्सव मनाते हैं मगर असम में मूलतः आजीविका के लिए धान और सब्जियां उगाई जाती हैं और लोग अपने खेतों में कड़ी मेहनत करते हैं.
इनमें ज़्यादा संख्या महिलाओं की है जो खेतों में काम करती हैं. राज्य के मुख्य त्योहार भी फ़सलों की कटाई और बुवाई के इर्द-गिर्द ही मनाए जाते हैं. नाबानिदी गोगोई जोरहट के बोलोमा मोरन गाँव के रहने वाले एक किसान हैं.
गोगोई और उनका परिवार आजीविका के लिए खेती करता रहा है, वो धान की फ़सल को घाटे को सौदा मानते हैं.
बीबीसी से बात करते हुए नाबानिदी गोगोई कहते हैं कि सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में उन्होंने सिर्फ़ अख़बारों में पढ़ा है या टीवी पर सुना है.
वे कहते हैं, "मैं जब अपना धान बेचने मंडी जाता हूँ तो मुझे उतने भी पैसे नहीं मिलते जितने मैंने उगाने के लिए ख़र्च किए हैं. उलटा जेब से ही ख़र्च हो रहा है."
बाज़ार और उचित मूल्य के अभाव में असम के किसानों का संघर्ष लगातार जारी है. कभी बाढ़ की मार तो कभी मौसम, इनके लिए खेती करना मुश्किल भरा काम होता जा रहा है. हर साल ऊपरी और निचले असम के कई इलाके़ बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं.
बाढ़ से फ़सलों का नुक़सान तो होता ही है मगर जब पानी उतरता है तो ज़मीन उपजाऊ नहीं रह जाती. किसानों को इस ज़मीन को फिर से खेती के लायक़ बनाने के लिए काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है और इस काम में महीनों या फिर पूरा साल भी लग सकता है.
वैसे जो धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार ने तय किया है, वो 1500 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि किसानों को 900 रुपये भी नहीं मिल पाते हैं. इसीलिए असम के किसान संघर्ष ही कर रहे हैं. इस संघर्ष में महिला किसानों की भागीदारी ज़्यादा है क्योंकि वो घर भी संभालती हैं और खेत भी.
इसका जवाब तलाश करने के लिए मैं जोरहट के एक गाँव पहुंचा, जहां बड़ी संख्या में महिलाएं खेतों में काम कर रहीं थी. वो पुरानी फसल काट रहीं थीं ताकि नई फ़सल बोने के लिए खेत तैयार हो सकें. ये पारंपरिक त्योहार बिहु का भी मौक़ा था.
पारंपरिक वेशभूषा में ये महिला किसान, मेहनत के साथ साथ खतों में सांस्कृतिक बिहु के नाच का आनंद भी ले रहीं थीं. उनके साथ बच्चे भी हाथ बंटा रहे थे. महिला किसानों के झुंड ने हमें घेर लिया और एक-एक करके अपनी परेशानियां साझा करनी शुरू कर दीं.
वो बताने लगीं कि आज भी वो उसी तरह से खेती कर रही हैं जैसी सौ साल पहले होती रही थी.
यहीं की गोनोबती भुइयां कहती हैं, "असम के ज़्यादातर किसानों के पास न मशीनें हैं ना ट्रैक्टर. हम खेती के लिए पूरी तरह से बारिश और नदी के पानी पर निर्भर हैं. खेतों में हल चलातें हैं क्योंकि ट्रैक्टर नहीं हैं और हाथों से ही बीज की बुवाई करते हैं. कुछ धान उगता है. कुछ दालें और सब्ज़ियां भी. मगर वो हमारे परिवार को चलाने के लिए काफ़ी नहीं हैं. इसलिए हमें मज़दूरी की तलाश भी करनी पड़ती है."
इसी इलाके के एक किसान ने बताया कि उन्हें खेती के लिए बैंकों से कर्ज़ भी नहीं मिल पाता. वो कहते हैं जब वो स्थानीय कृषि अधिकारी से लोन के लिए संपर्क करते हैं तो वे उन्हें सीधे बैंकों से संपर्क करने की सलाह दे डालते हैं. "कोई हमारी मदद नहीं करता."
महिला किसान अनीता सैकिया का आरोप था, "मौसम की वजह से या फिर कीड़े लग जाने की वजह से अगर फ़सल बर्बाद हो जाती है तो कोई स्थानीय अधिकारी देखने तक भी नहीं आता. मुआवज़ा तो दूर की बात है."
बीबीसी से बात करते हुए वो कहती हैं, "सिलापथार और आसपास का इलाक़ा आज भी पिछड़ा हुआ है जबकि इसकी दूरी जोरहाट से ज़्यादा नहीं है. यहां के सैकड़ों गाँव ऐसे हैं जहां बिजली नहीं पहुंची है. उस पर से तेल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी ने कृषि को एक महँगा धंधा बना दिया है. अब यहां के युवा खेती छोड़ दूसरे राज्यों में जाकर नौकरियां करना बेहतर समझ रहे हैं."
धान की खेती में हो रहे घाटे की वजह से ऊपरी और निचले असम में किसान सब्ज़ियां भी उगा रहे हैं लेकिन उन्हें इसमें भी ज़्यादा फ़ायदा नहीं मिल पाता क्योंकि इनके पास न नई तकनीक है, न सिंचाई के उपकरण और ना ही बाज़ार. ऊपर से बाढ़ की मार और मौसम का क़हर.
असम के किसान देश के बाक़ी के हिस्सों के किसानों से इसलिए अलग हैं क्योंकि ये मूलतः आजीविका के लिए खेती करते आ रहे हैं और वो भी पारंपरिक तरीके़ से. पूरे राज्य के किसानों का एक बड़ा तबक़ा ऐसा है जिनकी ज़िंदगी में टेक्नॉलॉजी की कोई ख़ास भूमिका नहीं है.
कई ऐसे व्यंजन हैं जो अहोम राजाओं के दौर से प्रचलित हैं. राज्य के कुछ-कुछ इलाक़ों में बनने वाले व्यंजन वैसे ही हैं जैसे बर्मा और थाईलैंड में पकाये जाते हैं. वैसे तो चावल ही यहाँ का मुख्य आहार है. मगर अब दालें और सब्ज़ियां भी उगाई जा रही हैं.
ऊपरी असम से लेकर निचले असम तक पारंपरिक खाने की थाली में परोसे गए व्यंजन अलग-अलग होते हैं और उनका स्वाद भी. अहोम लोगों के पकवान या फिर बोडो और अन्य जनजातियों के व्यंजन एक दूसरे से काफ़ी अलग हैं और उनका स्वाद भी क्षेत्र के हिसाब से बदलता रहता है.
कश्मीर से लेकर पूर्वी और मध्य भारत के अलावा दक्षिण भारत में भी खाना पकाने के तरीक़े अलग रहे हैं.
ये लोगों के स्वाद पर ही निर्भर है जहाँ मध्य और दक्षिण भारत में तेज़ मसालों का इस्तेमाल होता है, वहीं असम में भी पकवान मसालेदार होते हैं. लेकिन पड़ोसी राज्य अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और नागालैंड में मसालों का कम इस्तेमाल किया जाता है.
दूसरे प्रदेशों की तरह ही असम के किसान भी अपने व्यंजनों का उत्सव मनाते हैं मगर असम में मूलतः आजीविका के लिए धान और सब्जियां उगाई जाती हैं और लोग अपने खेतों में कड़ी मेहनत करते हैं.
इनमें ज़्यादा संख्या महिलाओं की है जो खेतों में काम करती हैं. राज्य के मुख्य त्योहार भी फ़सलों की कटाई और बुवाई के इर्द-गिर्द ही मनाए जाते हैं. नाबानिदी गोगोई जोरहट के बोलोमा मोरन गाँव के रहने वाले एक किसान हैं.
गोगोई और उनका परिवार आजीविका के लिए खेती करता रहा है, वो धान की फ़सल को घाटे को सौदा मानते हैं.
बीबीसी से बात करते हुए नाबानिदी गोगोई कहते हैं कि सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में उन्होंने सिर्फ़ अख़बारों में पढ़ा है या टीवी पर सुना है.
वे कहते हैं, "मैं जब अपना धान बेचने मंडी जाता हूँ तो मुझे उतने भी पैसे नहीं मिलते जितने मैंने उगाने के लिए ख़र्च किए हैं. उलटा जेब से ही ख़र्च हो रहा है."
बाज़ार और उचित मूल्य के अभाव में असम के किसानों का संघर्ष लगातार जारी है. कभी बाढ़ की मार तो कभी मौसम, इनके लिए खेती करना मुश्किल भरा काम होता जा रहा है. हर साल ऊपरी और निचले असम के कई इलाके़ बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं.
बाढ़ से फ़सलों का नुक़सान तो होता ही है मगर जब पानी उतरता है तो ज़मीन उपजाऊ नहीं रह जाती. किसानों को इस ज़मीन को फिर से खेती के लायक़ बनाने के लिए काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है और इस काम में महीनों या फिर पूरा साल भी लग सकता है.
वैसे जो धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार ने तय किया है, वो 1500 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि किसानों को 900 रुपये भी नहीं मिल पाते हैं. इसीलिए असम के किसान संघर्ष ही कर रहे हैं. इस संघर्ष में महिला किसानों की भागीदारी ज़्यादा है क्योंकि वो घर भी संभालती हैं और खेत भी.
इसका जवाब तलाश करने के लिए मैं जोरहट के एक गाँव पहुंचा, जहां बड़ी संख्या में महिलाएं खेतों में काम कर रहीं थी. वो पुरानी फसल काट रहीं थीं ताकि नई फ़सल बोने के लिए खेत तैयार हो सकें. ये पारंपरिक त्योहार बिहु का भी मौक़ा था.
पारंपरिक वेशभूषा में ये महिला किसान, मेहनत के साथ साथ खतों में सांस्कृतिक बिहु के नाच का आनंद भी ले रहीं थीं. उनके साथ बच्चे भी हाथ बंटा रहे थे. महिला किसानों के झुंड ने हमें घेर लिया और एक-एक करके अपनी परेशानियां साझा करनी शुरू कर दीं.
वो बताने लगीं कि आज भी वो उसी तरह से खेती कर रही हैं जैसी सौ साल पहले होती रही थी.
यहीं की गोनोबती भुइयां कहती हैं, "असम के ज़्यादातर किसानों के पास न मशीनें हैं ना ट्रैक्टर. हम खेती के लिए पूरी तरह से बारिश और नदी के पानी पर निर्भर हैं. खेतों में हल चलातें हैं क्योंकि ट्रैक्टर नहीं हैं और हाथों से ही बीज की बुवाई करते हैं. कुछ धान उगता है. कुछ दालें और सब्ज़ियां भी. मगर वो हमारे परिवार को चलाने के लिए काफ़ी नहीं हैं. इसलिए हमें मज़दूरी की तलाश भी करनी पड़ती है."
इसी इलाके के एक किसान ने बताया कि उन्हें खेती के लिए बैंकों से कर्ज़ भी नहीं मिल पाता. वो कहते हैं जब वो स्थानीय कृषि अधिकारी से लोन के लिए संपर्क करते हैं तो वे उन्हें सीधे बैंकों से संपर्क करने की सलाह दे डालते हैं. "कोई हमारी मदद नहीं करता."
महिला किसान अनीता सैकिया का आरोप था, "मौसम की वजह से या फिर कीड़े लग जाने की वजह से अगर फ़सल बर्बाद हो जाती है तो कोई स्थानीय अधिकारी देखने तक भी नहीं आता. मुआवज़ा तो दूर की बात है."
बीबीसी से बात करते हुए वो कहती हैं, "सिलापथार और आसपास का इलाक़ा आज भी पिछड़ा हुआ है जबकि इसकी दूरी जोरहाट से ज़्यादा नहीं है. यहां के सैकड़ों गाँव ऐसे हैं जहां बिजली नहीं पहुंची है. उस पर से तेल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी ने कृषि को एक महँगा धंधा बना दिया है. अब यहां के युवा खेती छोड़ दूसरे राज्यों में जाकर नौकरियां करना बेहतर समझ रहे हैं."
धान की खेती में हो रहे घाटे की वजह से ऊपरी और निचले असम में किसान सब्ज़ियां भी उगा रहे हैं लेकिन उन्हें इसमें भी ज़्यादा फ़ायदा नहीं मिल पाता क्योंकि इनके पास न नई तकनीक है, न सिंचाई के उपकरण और ना ही बाज़ार. ऊपर से बाढ़ की मार और मौसम का क़हर.
असम के किसान देश के बाक़ी के हिस्सों के किसानों से इसलिए अलग हैं क्योंकि ये मूलतः आजीविका के लिए खेती करते आ रहे हैं और वो भी पारंपरिक तरीके़ से. पूरे राज्य के किसानों का एक बड़ा तबक़ा ऐसा है जिनकी ज़िंदगी में टेक्नॉलॉजी की कोई ख़ास भूमिका नहीं है.
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